सोमवार, 21 जून 2010

महिलाओं के लिए खास अस्पताल

सुल्तानिया जनाना अस्पताल। महिलाओं के लिए बनाया गया विशेष अस्पताल। हालांकि आज यह अपनी उस भव्यता को खो चुका है।

शनिवार, 19 जून 2010

बीते वक्त की याद

भोपाल रेलवे स्टेशन और प्लेटफॉर्म, हालांकि यह दृश्य गुम हो चुका है। इसकी जगह ले ली है कांक्रीट के रेलवे स्टेशन ने। जिसे याद रखना मुश्किल है।

छुकछुक का इंतजार

भोपाल रेलवे स्टेशन पर पहली बार आ रही ट्रेन का इंतजार करतीं, नवाब बेगम। यह दृश्य है भोपाल रेलवे स्टेशन का है। जो आधुनिकता की चकाचौंध में कहीं गुम हो गया है।

लाल कोठी से राजभवन तक

लाल कोठी में भोपाल की बेगम (लालकोठी यानी वर्तमान का राजभवन। जो पुरानी विधान सभा यानी मिंटो हॉल के सामने है।)

भोपाल रियासत का झंडा



भोपाल के सामंती राज्य का झंडा (भारतीय संघ में शामिल होने से पहले का)

भोपाल गैस त्रासदी

भोपाल गैस त्रासदी
दहल गया, सहम गया
सुनी खबर ठिठक गया
भौचक्के  सब थे पूछते
अरे, ये कैसे हो गया ?
इस हादसे जैसी खबर
न पहले थी सुनी कभी
भोपाल गैस त्रासदी....भोपाल गैस त्रासदी

वो कैसी काली रात थी
मची हुई गुहार थी
भागते चले चलो
बस यही गुहार थी
कीड़े मकोड़ों की तरह
थी लाशों से सडकें पटी
भोपाल गैस त्रासदी .......भोपाल गैस त्रासदी

मरे हज़ार बेगुनाह
तड़प तड़प के भरके आह
आज भी हैं भोगते
वो दंश कितने, बेपनाह
न भूल पायेंगे कभी
वह रात, वह पिछली सदी
भोपाल गैस त्रासदी........भोपाल गैस त्रासदी

मचा हुआ कोहराम था
अप्रादी परेशान था
दिखा दिया गद्दारों ने
की यह तो हिन्दुस्तान था
रसूख वालों को यहाँ
है माफ़ चाहे जो वो करें, सभी
भोपाल गैस त्रासदी ..........भोपाल गैस त्रासदी

हुई तो गिरफ्तारी भी
ठाणे से ही ज़मानत भी
एंडरसन की फरारी में
वाहन भी थे सरकारी ही
कायम नई मिसाल की
भोपाल गैस त्रासदी .........भोपाल गैस त्रासदी

इस त्रासदी से भी बड़ी
हुई है "न्याय त्रासदी "
मिला न न्याय लोगों को
पचीस साल बाद भी
सजा है नाम मात्र को
इतने बड़े गुनाह की
भोपाल गैस त्रासदी .........भोपाल गैस त्रासदी

श्री अजय पाठक जी की रचना, भोपाल हादसे पर (लेखक, मध्यप्रदेश के सिंगरौली में एक्टिविस्ट हैं)

गुरुवार, 17 जून 2010

आओ भोपालः बदल दें इस घटिया सिस्टम को

घोर अफसोस और शर्म की बात है कि भोपाल गैस त्रासदी को “सिस्टम” की कारसतानी बताकर पल्ला झाड़ने की कोशिश की जा रही है। जी हां दोस्तों, कांग्रेस पार्टी का कहना है कि एंडरसन के बच निकलने में न तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जिम्मेदार थे और ही मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री। जिम्मेदार तो सिस्टम था।

अब जरा इन स्वयंभू समझदार और जनता को मूर्ख समझने वाले नेताओं से यह भी पूछा जाए कि आखिर वो ‘सिस्टम’ का क्या मतलब समझते हैं। जहां तक हमारी गैर राजनीतिक बुद्धि समझ पा रही है, सरकार ही सिस्टम है और उसे चलाती है। तो फिर यह कौन सा सिस्टम था, जिसने एंडरसन को भारत छोड़ने दिया और तो और सिस्टम का ही इसी हिस्सा लोगों को इसकी खबर लगने में 26 साल लग गए।

एक कहावत मैंने सुनी थी कि “12 साल में घूरे के दिन भी फिर जाते हैं।“ लेकिन कमबख्त नेतागिरी ने तो इस कहावत को भी झुठला दिया है। यूनियन कार्बाइड कारखाना भी वहीं का वहीं है और बाकी जिंदा बचे लोग भी। कारखाने में पड़ा जहरीला कचरा भोपाल की फिजा में जहर घोल रहा है। न तो कोई उसे साफ करने वाला है और न ही कोई उस हादसे के जिम्मेदार लोगों को पकड़ने वाला।

क्या कोतवाल और क्या चोर। सबने मिलकर भोपाल के साथ धोखा किया है। आज जब पोल खुल रही है और जनता सवाल पूछ रही है तो उसे सिस्टम का झुनझुना सुनाया जा रहा है। यदि आप उस समय के जिम्मेदार लोगों के बयानात पर गौर करेंगे तो अपनी हंसी और गुस्से दोनों को ही रोक नहीं पाएंगे। लेकिन इससे पहले जरा इस पर गौर करिए और बताइएगा कि क्या ऐसा संभव है।

मान लीजिए, 26/11 को हुए मुंबई हमले एकमात्र जीवित बचा आरोपी अजमल आमिर कसाब यह कहे कि उसे एक बार उसके घर जाने दिया जाए। वो परिजनों से मिलकर जल्द ही वापस आए जाएगा। तो क्या हमारा सिस्टम ऐसा करेगा। शायद नहीं। तो फिर एंडरसन के मामले में ऐसा कैसे होने दिया गया। क्योंकि एंडरसन को इसी मूर्खतापूर्ण वायदे के आधार पर जाने दिया गया था। हालांकि यह बात गले के नीचे उतर नहीं पा रही है।

तत्कालीन पुलिस अधीक्षक और बाद में डीजीपी पद से रिटायर हुए स्वराज पुरी को दी जा रही सभी सुविधाएं इसलिए हटा ली गई हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी सरकारी कार से एंडरसन को स्टेट हैंगर तक पहुंचाया था। अब अगर कार से स्टेट हैंगर तक छोड़ना इतना बड़ा गुनाह है तो फिर राज्य सरकार के शासकीय विमान का पायलट भी दोषी रहा होगा, जिसने एंडरसन को दिल्ली तक पहुंचाया था।

तो क्या वो “लोग” दोषी नहीं हैं, जिन्होंने इनको “सिस्टम” के नाम पर आदेश दिया हो। उठो भोपाल अब वक्त आ गया है। धोखेबाजों को सबक सिखाने का और अपना हक मांगने का। वरना किसी दिन सिस्टम की आड़ में राहत राशि को भी हजम कर जाएंगे।

उठो भोपाल, दलालों को कुचल दो और अपना हक छीन लो।

बुधवार, 16 जून 2010

चोर-चोर मसौरे भाई

जहां तक मुझे याद है, (दिसंबर 1984 और उसके बाद के अखबारों और पत्रिकाओं को पढ़कर) भोपाल गैस त्रासदी की घटना के समय जो हो-हल्ला हुआ था, उसके बाद यदि कुछ हो रहा है; तो वो अब हो रहा है। क्या अखबार और क्या टीवी चैनल, सभी के बीच आगे बढ़कर खबर देने की होड़ मची है। कुछ दिन तो खबरों का केंद्र वारेन एंडरसन ही था। हालांकि मोती सिंह और स्वराज पुरी के मुंह खोलने के बाद फोकस में अर्जुन सिंह भी आ गए हैं। खैर, इसे देर से आए पर दुरुस्त आए कहा जा सकता है। लेकिन एक सवाल और है कि आखिर इतने वर्षों तक ये नौकरशाह क्यों अपनी जुबान पर ताला लगाए बैठे रहे। इस समय जो कुछ भी हो रहा है उसे देखकर तो ऐसा लगता है कि मानो हम सांप निकल जाने के बाद लाठी ही पीट रहे हैं।

देश के नेता जो आदत से मजबूर हैं, एक ही काम करने में लगे हैं। आरोपों का गोबर एक-दूसरे पर फेंक रहे हैं और जता रहे हैं कि उनके ज्यादा पाक साफ तो कोई है ही नहीं। क्या कांग्रेस और क्या भाजपा। सभी एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। दरअसल यह देश की बदकिस्मती ही है कि यहां का नेता जनता को मूर्ख मानकर चलता है और अपने हित साधता रहता है।

तभी तो हर पांच वर्ष बाद बेशर्मी के साथ झूठे वादों का पुलिंदा लिए हर दरवाजे पर वोट के लिए विनती करता है। लेकिन हमारी जनता करे भी तो क्या करे। वोट न देना या फिर 49 (ओ) का प्रयोग कोई स्थायी हल तो नहीं है ना। भ्रष्टाचार हमेशा ऊपर से नीचे आता है। इसलिए अगर तंत्र को सुधारना है और लोगों को इसमें शामिल करना है तो सुधार भी ऊपर से ही शुरू करना होगा।

एक और बात, मेरे मन में हमेशा से एक सवाल सिर उठाता रहा है, कि आखिर कोई भी शख्स जब नेता बनता है तो उसके पास दौलत कहां से आ जाती है। जब बारी आती है संपत्ति के खुलासे की तो बताते हैं कि वो तो “बे”कार, “बे”घर हैं। तो फिर जिन कारों में वो पूरी शानो शौकत से घूमते हैं वो क्या दान में मिली होती है। जब इन नेताओं के पास घर ही नहीं होता है तो ये रहते कहां है। फुटपाथ पर तो कोई नेता दिखाई नहीं देता है। ऐसा झूठ यह साबित करता है कि वाकई हमारे देश के कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है।

अचानक मुझे एक बात और याद आई है कि अगर कहीं भूलवश गैस त्रासदी वाले मुद्दे पर किसी नेता या अफसर से पूछताछ की भी गई तो वो शख्स बीमार तो जरूर पड़ जाएगा। क्योंकि यह तो इन लोगों का विशेषाधिकार है। और हां, सबसे पहले चेस्ट पेन ही होता है और फिर कमजोरी आ जाती है। इसलिए इन त्रासदी से जुड़े लोगों से पूछताछ करते समय डॉक्टरों को तो वहां जरूर रखना चाहिए। वरना मामला अगले एक दशक और खिंच सकता है।

ऐसा मत सोचिएगा कि मैं विषय से भटक गया हूं। यह सब याद भी गैस त्रासदी के समान ही जरूरी भी है और कहीं न कहीं जुड़ा भी है। खैर, एंडरसन तो कमर तक कब्र में लटका हुआ है और भारत लाकर भी ना जाने क्या कर लेंगे उसका। जबकि सारे सबूत चीख-चीख कर कह रहे हैं कि एंडरसन इतना ताकतवर नहीं था कि भोपाल से बाहर भाग जाता और सकुशल भारत से निकल पाता। यह बिना राजनीतिक प्रश्रय से हो ही नहीं सकता था।

हालांकि जिम्मेदारी तय होने में अभी वक्त लगेगा, क्योंकि अभी तक इसी पर विचार मंथन हो रहा है कि कैसे तत्कालीन केंद्र सरकार और उसके मुखिया का नाम इस मामले से हटाकर उस समय के एमपी के सीएम पर ही सारी जिम्मेदारी मढ़ दी जाए। वैसे इसकी नौबत आने के आसार अभी थोड़ी दूर हैं क्योंकि फिलहाल तो सब लोग आरोप की गंदगी एक-दूसरे पर फेंकने पर आमादा हैं। कोई कह रहा है कि कांग्रेस जिम्मेदार है। तो कांग्रेस कह रही है कि अर्जुन सिंह जिम्मेदार हैं। कुल मिलाकर किसी एक को बलि का बकरा बनाने की तैयारी की जा रही हे। जबकि दोषी एक नहीं कई हैं।

चाहे उस समय की केंद्र की सरकार रही हो या फिर राज्य की भोपाल गैस त्रासदी के लिए दोनों ही जिम्मेदार हैं। साथ ही जिम्मेदार वो अफसरान भी हैं, जिन्होंने चुपचाप इस पाप में साथ दिया। यदि दस्तावेजों को देखा जाए तो पता चलता है कि एंडरसन को भगाने में एक नहीं कई महान लोग शामिल थे।

कार्टूनः मंजुल जी का है और दैनिक भास्कर से साभार लिया गया 

मंगलवार, 8 जून 2010

मोस्ट वांटेड कौन? पार्ट-2

भोपाल गैस त्रासदी और अदालती आदेश से संबंधित खबरें देशभर के अखबारों में छाई हुई हैं। सबने कानून एवं सरकारों को इसके लिए आड़े हाथ लिया है। हेडलाइंस को जितना हो सका उतना मार्मिक बनाया गया। कहीं जस्टिस बरिड हुआ, तो कहीं इंसाफ दफन हुआ, लेकिन एक सवाल जस का तस मुंह उबाए खड़ा है। कि असल जिम्मेदार आखिर है कौन? यूनियन कार्बाइड, वारेन एंडरसन या फिर वो जिम्मेदार नेता जिन्होंने वहां कारखाना स्थापित होने दिया।

इस पूरे मामले में एक बात गौर करने लायक है, जिस पर कोई भी अखबार या मीडिया हाउस उंगली नहीं उठा रहा है और वह है कि आखिर तत्कालीन सरकार ने उस वक्त कोई भी प्रभावी कार्रवाई क्यों नहीं की थी। क्यों इस बात का पता नहीं चल सका कि गिरफ्तार किए गए वारेन एंडरसन को तुरत फुरत में छोड़ दिया गया।

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ भी सिर्फ इस मामले को खबर मानते हैं। बरसी का मौका हो या फिर सुनवाई का, हेडलाइन और पैकेज के बाद मामला कहीं दफन हो जाता है। सामाजिक हितों का राग अलापने वाले संस्थानों ने इस मुद्दे को कितनी बार प्रमुखता से उठाया। इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता है कि प्रमुख अखबारों में सामाजिक सरोकारों की खबरें न छापने का अघोषित आदेश रहता है। यही वजह है कि ऐसे मुद्दे तभी छपते हैं जब गरमाते हैं। अन्यथा कोई पूछता तक नहीं है।

मानवता के खिलाफ इस षड्यंत्र में वो सभी शामिल कहे जा सकते हैं, जो इसे रोक सकते थे। चाहे वो तत्कालीन मंत्री रहे हों या फिर नौकरशाह। एक और अकाट्य सत्य यह भी है कि इस हादसे में जिनकी भी जानें गईं थीं, वो सब आम लोग थे, वरना न यह मामला इतना लंबा शायद नहीं खिंचता। जिस तरह से सांप के निकलने के बाद लकीर पीटना व्यर्थ है उसी तरह से यह मामला भी रहा। कुल मिलाकर बात यह कि जिसने भी यह पंक्तियां कहीं हैं कि “जस्टिस डिलेड, इज जस्टिस डिनाइड” बिलकुल सही कहीं हैं।

कार्टूनः हिंदुस्तान टाइम्स से साभार

सोमवार, 7 जून 2010

मोस्ट वांटेड कौन? नेता या एंडरसन?


भोपाल गैस त्रासदी को हुए 26 साल बीत चुके हैं। लेकिन हमारे देश की “शानदार व्यवस्थाओं” का फायदा उठाते हुए भोपाल गैस हादसे के जिम्मेदार लोग आजाद घूम रहे हैं। 26 वर्षों से मामला जिला अदालत में ही चल रहा था और फैसला आया भी तो…..।

खैर, अगर बात करें, इस हादसे के जिम्मेदार लोगों की तो इसके लिए सिर्फ वारेन एंडरसन अकेला ही जिम्मेदार नहीं है। इसमें वो सब बराबर के जिम्मेदार हैं, जो यूनियन कार्बाइड की स्थापना से लेकर गिरफ्तार किए जा चुके वारेन एंडरसन को छुड़वाने के लिए जिम्मेदार थे।

भोपाल गैस त्रासदी के बाद के पूरे घटनाक्रम पर नजर रखने वालों को अच्छी तरह से मालूम होगा कि आखिर यूनियन कार्बाइड कारखाने को शहर के सटे हुए इलाके में कारखाना लगाने की इजाजत किसने दी थी। इतना ही नहीं, यह जानते हुए भी कि यूका में जहरीले कीटनाशकों का उत्पादन किया जा रहा है, क्यों उसके आसपास के इलाकों से लोगों को किसी दूसरे स्थान पर विस्थापित नहीं किया गया।

यूका ने भारत सरकार को बतौर मुआवजा जो रकम दी थी, उसका उचित उपयोग क्यों नहीं किया गया। कहने के लिए अस्पतालों और शोध केंद्रों का निर्माण तो कर दिया गया, लेकिन आज तक वहां इस बात का पता नहीं लगाया जा सका कि आखिर गैस पीडितों का इलाज कैसे किया जाए।

देश के कानून मंत्री ने माना कि इंसाफ मे देरी हुई है, लेकिन क्या सिर्फ इससे उन लोगों के दर्द पर मरहम लग जाएगा जिनके अपनों को उस काली रात ने निगल लिया था। 1982 में ही जब यह पता चल चुका था कि यूका कारखाने में 30 खामियां हैं, तब भी कोई कार्रवाई न करने की वजह क्या थी।

आखिर क्यों कभी भी इस मुद्दे को भाजपा और कांग्रेस ने गंभीरता से नहीं लिया। क्यों राजनेता आए दिन विरोधाभासी बयान देते रहते हैं। वोट मांगने के लिए तो नेता इसे मुद्दा बना लेते हैं, लेकिन बाद में बाबूलाल गौर और जयराम रमेश जैसे जिम्मेदार राजनेता कहते हैं कि यूका परिसर एकदम स्वच्छ है।

तो फिर क्या माननीय नेता यह बता सकते हैं कि किस बीमारी की वजह से वहां रहने वाले लोगों की स्वास्थ्य समस्याएं बाकी लोगों से अलग हैं। 25 हजार लोगों की मौत के बदले सिर्फ दो साल की सजा, एक-एक लाख का जुर्माना और तुरंत जमानत।

ईश्वर हमारे नेताओं को सदबुद्धि दे तथा उस काली रात को काल के गाल में समाए लोगों की आत्मा को शांति दे।