बुधवार, 16 जून 2010

चोर-चोर मसौरे भाई

जहां तक मुझे याद है, (दिसंबर 1984 और उसके बाद के अखबारों और पत्रिकाओं को पढ़कर) भोपाल गैस त्रासदी की घटना के समय जो हो-हल्ला हुआ था, उसके बाद यदि कुछ हो रहा है; तो वो अब हो रहा है। क्या अखबार और क्या टीवी चैनल, सभी के बीच आगे बढ़कर खबर देने की होड़ मची है। कुछ दिन तो खबरों का केंद्र वारेन एंडरसन ही था। हालांकि मोती सिंह और स्वराज पुरी के मुंह खोलने के बाद फोकस में अर्जुन सिंह भी आ गए हैं। खैर, इसे देर से आए पर दुरुस्त आए कहा जा सकता है। लेकिन एक सवाल और है कि आखिर इतने वर्षों तक ये नौकरशाह क्यों अपनी जुबान पर ताला लगाए बैठे रहे। इस समय जो कुछ भी हो रहा है उसे देखकर तो ऐसा लगता है कि मानो हम सांप निकल जाने के बाद लाठी ही पीट रहे हैं।

देश के नेता जो आदत से मजबूर हैं, एक ही काम करने में लगे हैं। आरोपों का गोबर एक-दूसरे पर फेंक रहे हैं और जता रहे हैं कि उनके ज्यादा पाक साफ तो कोई है ही नहीं। क्या कांग्रेस और क्या भाजपा। सभी एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। दरअसल यह देश की बदकिस्मती ही है कि यहां का नेता जनता को मूर्ख मानकर चलता है और अपने हित साधता रहता है।

तभी तो हर पांच वर्ष बाद बेशर्मी के साथ झूठे वादों का पुलिंदा लिए हर दरवाजे पर वोट के लिए विनती करता है। लेकिन हमारी जनता करे भी तो क्या करे। वोट न देना या फिर 49 (ओ) का प्रयोग कोई स्थायी हल तो नहीं है ना। भ्रष्टाचार हमेशा ऊपर से नीचे आता है। इसलिए अगर तंत्र को सुधारना है और लोगों को इसमें शामिल करना है तो सुधार भी ऊपर से ही शुरू करना होगा।

एक और बात, मेरे मन में हमेशा से एक सवाल सिर उठाता रहा है, कि आखिर कोई भी शख्स जब नेता बनता है तो उसके पास दौलत कहां से आ जाती है। जब बारी आती है संपत्ति के खुलासे की तो बताते हैं कि वो तो “बे”कार, “बे”घर हैं। तो फिर जिन कारों में वो पूरी शानो शौकत से घूमते हैं वो क्या दान में मिली होती है। जब इन नेताओं के पास घर ही नहीं होता है तो ये रहते कहां है। फुटपाथ पर तो कोई नेता दिखाई नहीं देता है। ऐसा झूठ यह साबित करता है कि वाकई हमारे देश के कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है।

अचानक मुझे एक बात और याद आई है कि अगर कहीं भूलवश गैस त्रासदी वाले मुद्दे पर किसी नेता या अफसर से पूछताछ की भी गई तो वो शख्स बीमार तो जरूर पड़ जाएगा। क्योंकि यह तो इन लोगों का विशेषाधिकार है। और हां, सबसे पहले चेस्ट पेन ही होता है और फिर कमजोरी आ जाती है। इसलिए इन त्रासदी से जुड़े लोगों से पूछताछ करते समय डॉक्टरों को तो वहां जरूर रखना चाहिए। वरना मामला अगले एक दशक और खिंच सकता है।

ऐसा मत सोचिएगा कि मैं विषय से भटक गया हूं। यह सब याद भी गैस त्रासदी के समान ही जरूरी भी है और कहीं न कहीं जुड़ा भी है। खैर, एंडरसन तो कमर तक कब्र में लटका हुआ है और भारत लाकर भी ना जाने क्या कर लेंगे उसका। जबकि सारे सबूत चीख-चीख कर कह रहे हैं कि एंडरसन इतना ताकतवर नहीं था कि भोपाल से बाहर भाग जाता और सकुशल भारत से निकल पाता। यह बिना राजनीतिक प्रश्रय से हो ही नहीं सकता था।

हालांकि जिम्मेदारी तय होने में अभी वक्त लगेगा, क्योंकि अभी तक इसी पर विचार मंथन हो रहा है कि कैसे तत्कालीन केंद्र सरकार और उसके मुखिया का नाम इस मामले से हटाकर उस समय के एमपी के सीएम पर ही सारी जिम्मेदारी मढ़ दी जाए। वैसे इसकी नौबत आने के आसार अभी थोड़ी दूर हैं क्योंकि फिलहाल तो सब लोग आरोप की गंदगी एक-दूसरे पर फेंकने पर आमादा हैं। कोई कह रहा है कि कांग्रेस जिम्मेदार है। तो कांग्रेस कह रही है कि अर्जुन सिंह जिम्मेदार हैं। कुल मिलाकर किसी एक को बलि का बकरा बनाने की तैयारी की जा रही हे। जबकि दोषी एक नहीं कई हैं।

चाहे उस समय की केंद्र की सरकार रही हो या फिर राज्य की भोपाल गैस त्रासदी के लिए दोनों ही जिम्मेदार हैं। साथ ही जिम्मेदार वो अफसरान भी हैं, जिन्होंने चुपचाप इस पाप में साथ दिया। यदि दस्तावेजों को देखा जाए तो पता चलता है कि एंडरसन को भगाने में एक नहीं कई महान लोग शामिल थे।

कार्टूनः मंजुल जी का है और दैनिक भास्कर से साभार लिया गया 

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