भोपाल गैस त्रासदी और अदालती आदेश से संबंधित खबरें देशभर के अखबारों में छाई हुई हैं। सबने कानून एवं सरकारों को इसके लिए आड़े हाथ लिया है। हेडलाइंस को जितना हो सका उतना मार्मिक बनाया गया। कहीं जस्टिस बरिड हुआ, तो कहीं इंसाफ दफन हुआ, लेकिन एक सवाल जस का तस मुंह उबाए खड़ा है। कि असल जिम्मेदार आखिर है कौन? यूनियन कार्बाइड, वारेन एंडरसन या फिर वो जिम्मेदार नेता जिन्होंने वहां कारखाना स्थापित होने दिया।
इस पूरे मामले में एक बात गौर करने लायक है, जिस पर कोई भी अखबार या मीडिया हाउस उंगली नहीं उठा रहा है और वह है कि आखिर तत्कालीन सरकार ने उस वक्त कोई भी प्रभावी कार्रवाई क्यों नहीं की थी। क्यों इस बात का पता नहीं चल सका कि गिरफ्तार किए गए वारेन एंडरसन को तुरत फुरत में छोड़ दिया गया।
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ भी सिर्फ इस मामले को खबर मानते हैं। बरसी का मौका हो या फिर सुनवाई का, हेडलाइन और पैकेज के बाद मामला कहीं दफन हो जाता है। सामाजिक हितों का राग अलापने वाले संस्थानों ने इस मुद्दे को कितनी बार प्रमुखता से उठाया। इस बात से भी कोई इनकार नहीं कर सकता है कि प्रमुख अखबारों में सामाजिक सरोकारों की खबरें न छापने का अघोषित आदेश रहता है। यही वजह है कि ऐसे मुद्दे तभी छपते हैं जब गरमाते हैं। अन्यथा कोई पूछता तक नहीं है।
मानवता के खिलाफ इस षड्यंत्र में वो सभी शामिल कहे जा सकते हैं, जो इसे रोक सकते थे। चाहे वो तत्कालीन मंत्री रहे हों या फिर नौकरशाह। एक और अकाट्य सत्य यह भी है कि इस हादसे में जिनकी भी जानें गईं थीं, वो सब आम लोग थे, वरना न यह मामला इतना लंबा शायद नहीं खिंचता। जिस तरह से सांप के निकलने के बाद लकीर पीटना व्यर्थ है उसी तरह से यह मामला भी रहा। कुल मिलाकर बात यह कि जिसने भी यह पंक्तियां कहीं हैं कि “जस्टिस डिलेड, इज जस्टिस डिनाइड” बिलकुल सही कहीं हैं।
कार्टूनः हिंदुस्तान टाइम्स से साभार
shukria,
जवाब देंहटाएंu r right..justice ? ? ?